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“भागती दुनिया में जहाँ वक़्त का ठिकाना ही नहीं,
गैर तो गैर सही अपनों को जाना ही नहीं,
मरती हुई हरेक लम्हा जिन्दगी के कतरों में;
चलो मासूमियत ढूंढते है, चलो इंसानियत ढूंढते है,
कदम के साथ कदम मिलाने की कोशिश में जहाँ,
रस्ते में पड़े मौकों को भुनाने में जहाँ,
कहीं दूर भँवर में जिसे छोड़ा था कभी;
“सदा खुश रहो” कहती उन भीगी पलकों में,
चलो इंसानियत ढूंढते है,
मशगुल दिखे “ख़ुशी”, ख़ुशी पाने की हसरत में,
“जल्दी मुकाम” पाने का जुनून इन्सां की फितरत में,
“चाहे जैसे भी” की लत में, कोई “धुयें के व्यसन में,
पर आते ही नज़र चेहरा “बाप” का इन झुकी नज़रों में,
चलो इंसानियत ढूंढते हैं,
“मैं कौन हूँ?” और “कहाँ हूँ?” हर वक़्त ढूंढते हो,
“अजनबी” सवालों का पता “अजनबी” से पूछते हो,
जहाँ देने के लिए “समय” भी “समय” खो जाता है,
वहीँ दिखते ही “शव-यात्रा” बरबस रुके पैरों में,
चलो इंसानियत ढूंढते हैं, चलो इंसानियत ढूंढते हैं……
Manish Singh “गमेदिल”
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